भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लगे बरसने मेह / मुस्कान / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छम छम लगे बरसने मेह।
पहुँच गये सब अपने गेह॥

आँगन, छत, मुंडेर भीगे
भीगे कपड़े, भीगी देह॥

धूप खिली था खुला गगन
बरखा का न हुआ सन्देह॥

पल में पर मौसम बदला
बरस रहा है नभ का स्नेह॥