भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लेकिन कब तक? / सुशीला टाकभौरे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन की चट्टान पर
जब भी चोट पड़ती है
सब ओर
एक आग सी फैल जाती है
धुंधआती अधजली आग
ज्वालामुखी होकर
धरती-सी फूट पड़ती है
लोग भूकम्प की बात को
सहज मानते हैं
स्त्री ज्वाला-मुखी हो सकती है
यह भी तो सहज बात है