लेखन के संक्रमण काल में / वंदना गुप्ता
लेखन के संक्रमण काल में
मैं और मेरा लेखन
क्या चिरस्थायी रह पायेगा
क्या अपना वजूद बचा पायेगा
क्या एक इतिहास रच पायेगा
प्रश्नों के अथाह सागर में डूबता उतराता
कभी भंवर में तो कभी किनारे पर
कभी लक्ष्यहीन तो कभी मंज़िल की तरफ़
आगे बढता हिचकोले खाता
एक अजब कशमकश की
उथल पुथल में फ़ंसे मुसाफ़िर-सा
आकाश की ओर निहारता है
तो कभी अथाह जलराशि में
अपने निशाँ ढूँढता है
जबकि मुकाम की सरहद पर
खुद से ही जंग जारी है
नहीं... ये तो नहीं है वह देश
नहीं... ये तो नहीं है वह दरवेश
जहाँ सज़दा करने को सिर झुकाया था
और फिर आगे बढने लगती है नौका
ना जाने कहाँ है सीमा
कौन-सी है मंज़िल
अवरोधों के बीच डगमगाती कश्ती जूझती है
अपनी बनायी हर लक्ष्मणरेखा से
पार करते-करते
खुद से लडते-लडते
फिर भी नहीं पाती कोई आधार
सोच के किनारे पर खडी
देखती है
सागर में मछलियों की बाढ को
और सोचती है
क्या लेखन के संक्रमण काल से
खुद को बचाकर
रच पायेगी एक इतिहास
जिसके झरोखों पर कोई पर्दा नहीं होगा
कोई बदसलूकी का धब्बा नहीं होगा
जहाँ ना कोई रहीम ना कोई खुदा होगा
बस होगा तो सिर्फ़ और सिर्फ़
ऐतिहासिक दस्तावेज़ अपनी मौजूदगी का
मगर... क्या ये संभव होगा
संक्रमण काल में फ़ैलती संक्रामकता से खुद को बचाकर रखना?
भविष्य अनिश्चित है
और आशा की सूंई पर
चाहतों की कसीदाकारी पूरी ही हो... ज़रूरी तो नहीं
यूँ भी भरी सर्दी में
अलाव कितने जला लो
अन्दर की आग का होना ज़रूरी है... शीत के प्रकोप से बचने के लिये
तो क्या... यही है प्रासंगिकता
भीतरी और बाहरी खोल पर फ़ैली संक्रामकता की?