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लोहे का घर: छह / शरद कोकास
Kavita Kosh से
हर रोज़ सुबह
याद से
रेल की खिड़की से झाँकते
मुसाफिरों की ओर देखकर
अपना हाथ हिलाता है वह
बावज़ूद
पूरी रेल में
उसका अपना कोई नहीं होता।