भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लौटना / ब्रजेश कृष्ण
Kavita Kosh से
लौटूँगा
मैं लौटूँगा एक बार फिर उसी जगह
जहाँ मैं खु़द को अधूरा छोड़ आया था
जानता हूँ मैं कि यह अकस्मात् नहीं था
मैं लाया था एक रैक
जूते सजाने के लिए
रैक और जूते घर में सजे थे
मगर शब्द जा चुके थे
क्योंकि वे सजाये नहीं जा सकते थे रैक में
मैं जूतों को क़रीने से सजाता गया
साल-दर-साल
जूते रैक में सलामत थे
और मैं घिस रहा था
बार-बार/लगातार
और मैं आ पहुँचा यहाँ
यहाँ यानी:
बुझे हुए चेहरे
छिलते हुए कंधे
और ज़ख़्मी पाँव के नीचे
भागती हुई ज़मीन
लेकिन मैं लौटूँगा
एक बार फिर उसी जगह
रैक और जूतों से परे
जहाँ मैं खु़द को
अधूरा छोड़ आया था
जहाँ मेरे शब्द हैं
शब्द के अर्थ हैं
अर्थ की धड़कन है
यानी मैं हूँ।