भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कलगी बाजरे की

2,587 bytes added, 16:07, 9 दिसम्बर 2010
नया पृष्ठ: हरी बिछली घास।<br /> दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।<br /> <br /> अगर मैं तुम को ल…
हरी बिछली घास।<br />
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।<br />
<br />
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका<br />
अब नहीं कहता,<br />
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,<br />
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो <br />
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है<br />
या कि मेरा प्यार मैला है।<br />
<br />
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।<br />
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।<br />
<br />
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।<br />
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :<br />
तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादु के-<br />
निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं-<br />
अगर मैं यह कहूं-<br />
<br />
बिछली घास हो तुम<br /> लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ?<br />
<br />
आज हम शहरातियों को<br />
पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से <br />
सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-<br />
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,<br />
या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी<br />
अकेली <br />
बाजरे की।<br />
<br />
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं<br />
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-<br />
और मैं एकान्त होता हूं समर्पित<br />
<br />
शब्द जादु हैं-<br />
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?<br />
31
edits