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:::सत्यमेव जयते नानृतम्।
:::सत्यमेव जयते नानृतम।नानृतम्। जग के जीवन में ऐसा भी युग आता है जब छाता ऐसा अंधकार ऊँची से ऊँची भी मशाल होती विलुप्त, होते पथ के दीप सुप्त सूझता हाथ को नहीं हाथ, पाए फिर किसका कौन साथ। एकाकी हो जो जहाँ वहीं रुक जाता है, सब पर शासन करता केवल संनाटा है। पर उसे भेदकर भी कौई स्वर उठता है, फिर कौई उसे उठाता है, दुहराता है, फिर सभी उठाटे, सब उसको दुहराते हैं, अंधियाले का दु:सह आसन डिग जाता है- :::अप्प दीपो भव! :::अप्प दीपो भव! जैसे शरीर के उसी तरह देश-जाती के अंग संतुलित, संयोजित, संगठित, स्वस्थ, विपरीत, रुग्ण। दुर्भाग्य कि विघटित आज केंद्र, कुछ नहीं आज किसी मुल संत्र से नद्ध युक्त, सब शक्ति-परीक्षण को तत्पर; परिणाम, प्रतिस्पर्धा, तलवार तर्क, पशुबल केवल जय का प्रमाण- गो क्षत-विक्षत प्रत्येक पक्ष औ' िनैतिकता निरपेक्ष, लोकमान्यता उपेक्षक भनिति भदेस गुंजाती धरती-आसमान- :::जिसकी लाठी उसकी भैंस। :::जिसकी लाठी उसकी भैंस। अब कुला विदेशी आक्रांता के लिए देश, बाहर-भीतर, खंडित-जर्जर। पर्व-सागर का पार लुटेरे-व्यापारी आते, बनते हैं उसके अभिभावक शासक; वह लुटता, शोषित होता है- अपमानित, निंदित, अध:पतित सदियों के कटु अनुभव से मंथित अंतर से आवाज़ एक अवसाद भरी उठती है, आती व्याप दिशा-विदिशाओं में, नगरों, उपनगरों, गाँवों में, जन-जन की मन:शिराओं में- :::पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। :::पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। फिर-फिर निर्बल विद्रोह विफल हो जाते हैं, श्रृंखला खलों की नेक नही ढीली होती। परवशता की अंतिम सीमा पर असामर्थ्य भी सामर्थ्य जगा करता है एक टेक रखकर करने या मरने की। तब हार-जीत की फिक्र कहाँ रह जाती है, जब किसी, स्वप्न, आदर्श, लक्ष्य से प्रेरित होकर जाति दाँव पर निज सर्वस्व लगाती है। गाँधी की जिह्वा पर उस दिन बूढ़ा भारत, जैसे फिर से होकर जवान अब और न सहने का हठकर, सब धैर्य छोड़, युग-युग सोया पुरुषार्थ जगा, साहस बटोरकर बोला था- वह निर्भय, निश्चयपूर्ण शब्द सुनकर उसदिन परदेशी साशन डोला था- करो या मरो! मरो या करो। कुछ न गुज़रो, कुछ न गुज़रो। आज़ाद मुल्क, दोनों हाथों करके वसूल कुछ बड़ा शुल्क। क्या सर्व हानी आशंका से ही आधा त्याग नहीं गया?- जो अर्ध पराजय थी पनवाई गई बताकर पूर्ण जीत। धीरे-धीरे परिणाम स्पष्ट, टुकड़े-टुकड़े स्वाधीन देश का मोहभंग, सपना विनष्ट। अवसरवादी नेताओं की, संघर्षकाल में किए गए साधन के फल भोगने-सँजोने की वेला भूखी, नंगी जनता गरीब की अवहेला। वह दिन-दिन भारी ऋणग्रस्त, दुर्दिन, अकाल, मँहगाई से संत्रस्त, पस्त, अधिकारी, व्यापारी, बिचौलिए लोभी भ्रष्टाचार-मस्त, कर्तव्यविमूढ़, आशाविहीन, संपूर्ण आत्म-विश्वास-रिक्त, नवदृष्टि-रहित, उत्साह-क्षीण, सब विधि वंचित, कुंठा-कवलित भारत समस्त। :::वे 'अवाँ गार्द', :::अर्थात हमारे अग्रिम पंक्ति सफ़र-मैना, जिनको कोई युग-नाद उठाना था ऊँचा कर कसकर मुट्ठी बँधा हाथ, टें-टें करते वे चला रहे हैं वाद, :::वाद पर वाद, :::वाद पर वाद!