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इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में
इक शाखशाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
दिन जिंदगी के ख़तम ख़त्म हुए शाम हो गई फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मजार मज़ार में
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
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