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Kavita Kosh से
कैसे बहकी हुई नज़रों की तय्युश के लिये
सुर्ख़ महलों में जवाँ जिस्मों के अम्बार लगे
कैसे हर शाख से मुंह बंद महकती कलियाँ
नोच ली जाती थीं तजईने - हरम की खातिर
और मुरझा के भी आजादन हो सकती थीं
जिल्ले-सुबहान की उल्फत के भरम की खातिर
कैसे इक फर्द के होठों की ज़रा सी जुम्बिश
सर्द कर सकती थी बेलौस वफाओं के चिराग
लूट सकती थी दमकते हुए माथों का सुहाग
तोड़ सकती थी मये-इश्क से लबरेज़ अयाग
सहमी सहमी सी फ़िज़ाओं में ये वीराँ मर्क़द