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Kavita Kosh से
<poem>यहाँ हर आँख से सपना अलग है
गज़ब है पेड़ से साया अलग है
अदब करता है यह पागल बडों का
मेरे बेटों में ये बेटा अलग है
तुम्हारे साथ जो गुजरा था एक दिन
वो मेरी जीस्त का लम्हा अलग है
है आगे सिर्फ मंदिर और मस्जिद
यहाँ से अब मेरा रस्ता अलग है
तगाफुल में भी है उसकी मुहब्बत
मेरा उस शख्स से रिश्ता अलग है
जहाँ की रौनकें तुमको मुबारक
मेरी तन्हाई की दुनिया अलग है
उन्हें सब कुछ हरा ही दिख रहा है
करूँ क्या पर मेरा चश्मा अलग है
किताबों की जगह बारूद- बम हैं
नए बच्चों का अब बस्ता अलग है
ग़ज़ल कहने को कितने कह रहे हैं
'अनिल' तेरा मगर लहज़ा अलग है</poem>