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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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छोड़ा था जहाँ मुझको उसी जा पे खड़ा हूँ
हर लमहा तेरे आने की रह देख रहा हूँ

क्यों बादे-सबा ख़ुशबू चुरा लेती है मेरी
मैं फूल हूँ, काँटों की हिफ़ाज़त में पला हूँ

काटे नहीं कटती हैं ये तन्हाई की रातें
एहसास की शिद्दत को मैं अब जान चुका हूँ

बनकर जो उड़ा भाप तो बरसात में लौटा
इक बूँद हूँ पानी की समन्दर में मिला हूँ

हर रोज़ यहाँ मरने को जीना कहे दुनिया
ये मुझको ही मालूम है मैं कैसे जिया हूँ

हँस-हँस के सितम क्यों नहीं, अपनों के मैं झेलूं
"रिश्तों की अज़ीयत का सफ़र काट रहा हूँ"

फ़ितरत में रक़ाबत की 'रक़ीब' आई न कुछ बात
मैं फ़ेलो अमल में यहाँ बहुतों से भला हूँ
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