भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|संग्रह=कविता लौट पड़ी / कैलाश गौतम
}}
{{KKCatNavgeet}}
</poem>
बारिश में घर लौटा कोई
दर्पण देख रहा
न्यूटन जैसे पृथ्वी का
आकर्षण देख रहा ।
गीत-हँसी-संकोच-शील सब<br>मिले विरासत में<br>जो कुछ है इस घर में सब कुछ<br>प्रस्तुत स्वागत में<br>कितना मीठा है मौसम का<br>बंधन देख रहा।<br><br>
नाच रही है दिन की छुवनअभी भी आँखों में,फूलझरी-सी छूट रही हैवही पटाखों में लगता जैसे मुड़-मुड़ कोई हर क्षण देख रहा । दिन भर चाह रही होठों पर,<br>दिन भर प्यास रही<br>रेशम जैसी धूप रही<br>मखमल -सी घास रही<br> आँख मूँदकर<br> सुख<br> सर्वस्व समर्पण देख रहा।रहा ।</poem>