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{{KKRachna
| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
तज़करा है तेरा मिसालों में
तू है बेशक परी जमालों में
नींद क्योंकर ख़फ़ा है आँखों से
अब तो आती है बस ख़यालों में
फूल बनना मुझे गवारा है
तू जो मुझको लगाए बालों में
कुछ ज़वाबात ऐसे होते हैं
जो छुपे होते हैं सवालों में
रंग लें, क्यों न अपने जीवन को
आज रंगों में और गुलालों में
कल अंधेरों में लोग लुटते थे
आज लुटने लगे उजालों में
आज उकता के चल दिए देखो
छोड़कर ज़िन्दगी बवालों में
हर कोई जाएगा यहाँ से 'रक़ीब'
हम भी हैं याँ से जाने वालों में
</poem>
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| संग्रह =
}}
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तज़करा है तेरा मिसालों में
तू है बेशक परी जमालों में
नींद क्योंकर ख़फ़ा है आँखों से
अब तो आती है बस ख़यालों में
फूल बनना मुझे गवारा है
तू जो मुझको लगाए बालों में
कुछ ज़वाबात ऐसे होते हैं
जो छुपे होते हैं सवालों में
रंग लें, क्यों न अपने जीवन को
आज रंगों में और गुलालों में
कल अंधेरों में लोग लुटते थे
आज लुटने लगे उजालों में
आज उकता के चल दिए देखो
छोड़कर ज़िन्दगी बवालों में
हर कोई जाएगा यहाँ से 'रक़ीब'
हम भी हैं याँ से जाने वालों में
</poem>