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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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सच कहता हूँ पानी कि फ़ितरत में रवानी है
"जम जाए तो खूँ समझो, बह जाए तो पानी है"

घर दिल में बनाया है जिस रूप की देवी ने
उस रूप की देवी की क्या खूब कहानी है

क्या फिर से इरादा है दरिया में नहाने का
क्या आग तुझे ज़ालिम पानी में लगानी है

तुम मेरे हो मेरे हो है प्यार मुझे तुमसे
बिगड़ी हुई क़िस्मत भी तुम ही को बनानी है

जब कोई ख़ुशी पाई महसूस हुआ मुझको
ग़म दिल में जो पलता है क़ुदरत की निशानी है

मुझको तो निभाना है ये फ़र्ज़ मुहब्बत का
वादा भी निभाना है, चाहत भी निभानी है

इन्सां की जो फ़ितरत है बदली है न बदलेगी
लिक्खी है किताबों में ये बात पुरानी है

रोते हैं 'रक़ीब' अक्सर इंसां हो, के हैवाँ हो
ऐ वीर अभीमन्यू तेरी वो कहानी है
</poem>
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