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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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राहे-वफ़ा में जब भी कोई आदमी चले
हमराह उसके सारे जहाँ की ख़ुशी चले

छोड़ो भी दिन की बात मिलन की ये रात है
जब बात रात की है तो बस रात की चले

बुलबुल के लब पे आज हैं नग़में बहार के
सहने चमन में यूँ ही सदा नग़मगीं चले

तय्यार हूँ मैं चलने को हर पल ख़ुदा के घर
लेकर मुझे जो साथ मेरी बेख़ुदी चले

रहती है मेरे साथ सफ़र में बला की धूप
इक शब कभी तो साथ मेरे चांदनी चले

मैं जा रहा हूँ तेरा शहर छोड़ कर 'रक़ीब'
आना हो जिसको साथ मेरे वो अभी चले
</poem>
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