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किसान / अभय मौर्य

68 bytes added, 05:42, 14 जनवरी 2011
आ धमका तभी इक मोटा लाला पिल-पिला,
टाँगते हुए लांगड़लाँगड़, आंगळी आँगळी हिला-हिला ।
हमारी धरती में ऐंठ से बेंत गाड़ते हुए,
हट्टे-कट्टे लठैत साथ ले बाब्बू को ताड़ते हुए ।
खोला उन्हें जुए से गर्दन पकड़ते हुए ।
खींच ज्योड़ों से की डंडों की बौछार,
ले चले शहर को देते गाली धुआंधार धुआँधार
गिर पांव पाँव लाला के बाब्बू गिड़गिड़ाए,
“मोहलत दे, दे हे लाला!”, वे रिरियाए ।
“अगली फसल पै सारा कर्ज चुका द्यूंगा,
ब्याज गल्लै एक-एक पाई दे द्यूंगा।”द्यूंगा ।”
“चल हट!” – लाला फुंफकाराफुँफकारा,“नहीं सै बात या मन्नै गवारा।गवारा ।ना मानूं मानूँ तेरी इन थोथी बात्तां बात्ताँ नै,कतई ना छोड्डू तेरे बौल्दां नै।”बौल्दाँ नै ।”
“के करूंकरूँ, लाला,” बाब्बू बोले,“पकी फसल पर पड़गे ओले।ओले ।सोने-सी गेहूं गेहूँ जमीन पै लेटगीदेखते-देखते किस्मत फूटगी।”फूटगी ।”
लाला कड़का, हुंकाराहुँकारा, “तो मैं के करूंकरूँ ? या नवी बात नईं, तेरा के कीन करूंकरूँ ?
कुछ ओहर हो जैगा, पाळा पड़ जैगा,
ऐग लैग जैगी, बेमौसमी मींह पड़ जैगा।जैगा ।
मेरे पीसे तो डूबगे, वापस मिलैंगे नहीं,
ईब भागते चोर की लंगोटी ही सही।सही ।
तेरे बौल्द ही सही, ब्याज तो मिलैगा,
साहुकारों का बुहार तो नई बिगडैगा।”बिगडैगा ।”
तब मैं छोटा था, पर रोया था मैं जार-जार,
उठे थे सवाल: क्यों है बाब्बू मेरा लाचार?क्यों है निढाल मां माँ गोबर और भरोटे ढो-ढोकर?क्यों गिड़गिड़ाए बाब्बू लाला के पांवों पाँवों में लोटकर?
और मेरे छिंदरे भी क्यों हैं चिथड़े-चिथड़े?क्यों हैं बिन तले की जूतियां जूतियाँ टुकड़े-टुकड़े?क्यों सोना पड़ता है हमें अक्सर पेट काटकर?जवाब न मिला था कोई चुप हुआ हारकर।हारकर ।
लाला ने लिया बाब्बू को जूते की नोक पे,
मार ठोकर, छीने बैल डंके की चोट पे।पे ।उछाली पगड़ी बाब्बू की दी गालियां हजारगालियाँ हज़ार,“चोर की लंगोटी” सरे आम ली थी उतार।उतार ।
उस वर्ष बाब्बू न कर पाए थे गेहूं गेहूँ की बीजाई,हम सब – मांमाँ, बहन, मैं, बाब्बू और छोटा भाई,बन लाचार टुकड़े-टुकड़े को हुए थे मोहताज।मोहताज ।न जला चूल्हा हमारा परसों, कल और आज।आज ।
न मिला सहारा हमें, न किसी को रहम आया,
न लाला ने, न फौजी चाचा ने तरस खाया।खाया ।
बाब्बू ने डाल लिया फंदा गले में, छा गया मातम,
मांमाँ, भाई और बहन ने भी आखिर आख़िर तोड़ दिया दम।दम ।
अकेला मैं किसी तरह बच गया,
मामा अपने गांव गाँव मुझे ले गया।गया ।अब बड़ा हो गया हूं हूँ मैं, पढ़-लिख गया,बनकर ‘साब’ बड़ा कुर्सी में धंस गया।धँस गया ।
गांव गाँव गया था मैं हाल ही में, तो बात मुझे बताई, छीनने ट्रेक्टर ताऊ का लठैत नहीं, पुलिस थी आई।आई ।
लाला भी आया था ब्याज और मूलधन वसूलने,
नए ‘चोर’ की लंगोटी उतारकर पगड़ी उछालने।उछालने ।
ताऊ बेचारे हुए थे निढाल और लाचार,
डाला उसने भी गले में अपनी ही पगड़ी का हार।
उनकी अपनी पगड़ी बनी स्वर्ग की पींग,
झूलकर उस पर वे सो गए गहरी नींद।नींद ।
समझ में लगी हैं बातें अब आने,
नए नहीं ये, हैं सवाल वही पुराने।पुराने ।
देते दर्द असह्य, रहे हैं वर्षों से झकझोर,
आता कलेजा मुंह मुँह को, न कोई ओर, न छोर।छोर ।
क्यों झूले मेरे बाब्बू हल की रस्सी से?क्यों लटके ताऊ, चाचा अपनी पगड़ियों से?क्यों उछलती है पगड़ी हाळियों की?क्यों झुलसती है चमड़ी पाळियों की?
क्यों फलते-फूलते हैं सदा ये मोटे लाला पिलपिले?क्यों चलते हैं निरंतर कमेरों की मौत के सिलसिले?क्यों दाने-दाने को मोहताज बच्चों ने हैं हाथ पसारे?क्यों मजे मज़े में हैं दलाल, सूदखोर, हाकिमहाक़िम, लुटेरे ये सारे?
पर जवाब मिलता है कि इंडिया चमक रहा है,
बन विश्व सितारा महान भारत दमक रहा है।
जीते हैं हम कारगिल, खदेड़ दिया सभी पाकियों को,
श्रेय रक्षामंत्री, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और साथियों को।को ।
पहनकर निक्कर कर लेते हैं देशभक्ति पर वे एकाधिकार,
किया जिन्होंने मजदूरों मज़दूरों को लहूलुहान, किसानों को लाचार।लाचार ।
खेत रहे बहादुर सिपाहियों को भूल जाते हैं सब,
खेत-खलिहानों के बेटों को याद करते हैं कब?
आज भूखे पेटों को परोसे जाते हैं आंकड़ेआँकड़े,आठ, नौ, दस प्रतिशत इतराते हैं आंकड़े।आँकड़े।
कितनी बड़ी विडंबना है कि झूठ में है दम,
कि दमक रहा है भारत, जुल्म ज़ुल्म हैं इसमें कम।कम ।
हो गया हूं मैं सयाना, अक्सर सोचता हूंहूँ,सिहर उठता हूंहूँ, बाल अपने नोचता हूं।हूँ ।
फिर झटसे उठा सिर अपना, तानता हूं सीना,
नहीं सिसकेंगे और अब, नहीं है होंठ सीना।सीना ।
घुट-घुटकर जीना भी है कोई जीना?लुटेरे करें मौज, हमें है जहर ज़हर पीना?फांसी फाँसी से तो बेहतर है संघर्ष का बिगुल बजाना,लड़ते हुए पगड़ी संभालना या शहीद हो जाना।जाना ।
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