भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
थक गए हो?
क्या हुया यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी मॉं माँ न माध्यम बनी होगी आज
मैं न सकता देख
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
धन्य तुम, मॉं माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तुम्हारा संपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि ऑंखे आँखे चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
लगती बड़ी ही छविमान!
Anonymous user