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{{KKRachna
|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
}}{{KKCatKavita}}{{KKAnthologyMaa}}<poem>चिड़ियों के जगने से पहले  जग जाती थी मेरी माँ ।माँ।
ढिबरी के नीम उजाले में
 पढ़ने मुझे बिठाती माँ ।माँ।
उसकी चक्की चलती रहती
 
गाय दूहना, दही बिलोना
 सब कुछ करती जाती माँ ।माँ।
सही वक़्त पर बना नाश्ता
 जीभर मुझे खिलाती माँ ।माँ।
घड़ी नहीं थी कहीं गाँव में
 समय का पाठ पढ़ाती माँ ।माँ।
छप्पर के घर में रहकर भी
 तनकर चलती –फिरती माँ ।माँ।
लाग –लपेट से नहीं वास्ता
 खरी-खरी कह जाती माँ ।माँ।
बड़े अमीर बाप की बेटी
 अभाव से टकराती माँ ।माँ।
धन –बात का उधार न सीखा
 जो कहना कह जाती माँ  अस्सी बरस की इस उम्र ने  कमर झुका दी है माना ।माना।
खाली बैठना रास नहीं
 पल भर कब टिक पाती माँ ।माँ।
गाँव छोड़ना नहीं सुहाता
 शहर में न रह पाती माँ ।माँ।
यहाँ न गाएँ ,सानी-पानी
 मन कैसे बहलाती माँ ।माँ।
कुछ तो बेटे बहुत दूर हैं
 कभी-कभी मिल पाती माँ ।माँ।
नाती-पोतों में बँटकर के
 और बड़ी हो जाती माँ ।माँ।
मैं आज भी इतना छोटा
 कठिन छूना है परछाई ।परछाई।
जब –जब माँ माथा छूती है
 जगती मुझमें तरुणाई ।तरुणाई।
माँ से बड़ा कोई न तीरथ
 ऐसा मैंने जाना है ।है।
माँ के चरणों में न्योछावर
 करके ही कुछ पाना है ।है।</poem>
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