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|संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय
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<poem>
कि कहने को तुम्हें इस
इतने घने अकेले में
मेरे पास कुछ भी नहीं है बात ।बात।
क्यों नहीं पहले कभी मैं इतना गूँगा हुआ ?
क्यों नहीं प्यार के सुध-भूले क्षणों में
मुझे इस तीखे ज्ञान ने छुआ
कि खो देना तो देना नहीं होता-भूल जाना और, उत्सर्ग है और बात :
कि जब तक वाणी हारी नहीं
और वह हार मैंने अपने में पूरी स्वीकारी नहीं,
अपनी भावना, संवेदना भी वारी नहीं-
तब तक वह प्यार भी
निरा संस्कार है,संस्कारी नहीं ।नहीं।
हाय, कितनी झीनी ओट में
और मुझे घेरे रही
अँधेरे अकेले घर में
अँधेरी अकेली रात ।रात।
</poem>
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