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'''यह अँजोरे पाख की एकादशी'''
 
 
यह अँजोरे पाख की एकादशी
 
दूध की धोयी, विलोयी-सी हँसी ।
 
गंधमाती हवा झुरुकी चैत की,
 
अलस रसभीनी युवा मद की थकी
 
लतर तरु की बाँह में,
 
चाँदनी की छाँह में
 
एक छवि मन में कहीं तिरछी फँसी
 
गोल लहरें, जुन्हाई अँगिया कसी ।
 
 
 
हर बटोही को टिकोरे टोंकते,
 
और टेसू, पथ अगोरे रोकते
 
कमल खिलते ताल में,
 
बसा कोई ख्याल में
 
चंद्रमा, श्रृंगार का ज्यों आरसी,
 
रात, जैसे प्यार के त्यौहार-सी ।
 
 
 
गुनगुनाती पाँत भँवरों की चली,
 
लाज से दुहरी हुई जाती कली
 
धना बैठी सोहती,
 
बाट प्रिय की जोहती
 
द्वार पर ज्यों सगुन बन्दनवार-सी
 
रस भिंगोयी सुघर द्वारा चार-सी ।
 
 
 
'''झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,'''
 
 
 
 
 
झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,
 
इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही ।
 
 
 
जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे,
 
रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे ।
 
ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले,
 
रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं ।
 
 
 
शायद कल मानव की हों न सूरतें
 
शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें ।
 
आदम के शकलों की यादगार हम,
 
इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही ।
 
 
 
पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं,
 
हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी ।
 
प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं,
 
पथरायी आँखों में है नमी कहीं ?
 
 
 
'''गुजर गया एक और दिन'''
 
 
 
 
गुजर गया एक और दिन,
 
रोज की तरह ।
 
 
 
चुगली औ’ कोरी तारीफ़,
 
बस यही किया ।
 
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़
 
कुछ नहीं किया ।
 
तौबा कर आज फिर हुई,
 
झूठ से सुलह ।
 
 
 
याद रहा महज नून-तेल,
 
और कुछ नहीं
 
अफसर के सामने दलेल,
 
नित्य क्रम यही
 
शब्द बचे, अर्थ खो गये,
 
ज्यों मिलन-विरह ।
 
 
 
रह गया न कोई अहसास
 
क्या बुरा-भला
 
छाँछ पर न कोई विश्वास
 
दूध का जला
 
 
कोल्हू की परिधि फाइलें
 
मेज की सतह ।