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जिजीविषा / विजय कुमार पंत

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भूख जितनी भी विकल हो
पेट भर का पी रहा हूँ
चित्र बनकर जी रहा हूँ...... 
सूत भर कर सूत धागे
कल की चिंता हो रही है
हूँ वही.. जो भी रहा हूँ
चित्र बनकर जी रहा हूँ ...
</poem>
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