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'''नब्बे साला बूढ़े तातारी शायर जम्बूल जाबर की नज़्म का मुक्त अनुवाद'''
सफे आदा <ref>दुश्मन की कतार</ref> के मुक़ाबिल है हमारा रहबर स्तालिनमादर-ए-रूस की आँखों का दरख़्शाँ <ref>जगमगाता</ref> ताराजिसकी ताबानी <ref>तेज</ref> से ज़ामिन है ज़मीं
वो ज़मीं और वो वतन
जिसकी आज़ादी का ज़ामिल है शहीदों का लहू
जिसकी बुनियादों में जम्हूर <ref>जनता</ref> का अर्क़<ref>रस</ref>उनकी मेहनत का उक़ूवत <ref>सद्भावना</ref> का मुहब्बत का ख़मीर
वो ज़मीं
उसका जलाल<ref>तेज</ref>उसका हस्ज्महश्म<ref>शान</ref>क्या मैं इस रज़्म <ref>युद्ध</ref> का ख़ामूश तमाशाई बनूँ
क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ
क्या मुजाहिद न बनूँ ?
क्या मैं तलवार उठाऊँ न वतन की ख़ातिर
मेरे प्यारे मेरे फ़िरदौस बदन <ref>स्वर्ग के से शरीर वाली पवित्र मातृभूमि</ref> की ख़ातिर
ऐसे हंगाम-ए क़यामत में मेरा नग़म-ए- शौक
क्या मेरे हमवतनों के दिल मेंज़िन्दगी में ज़िन्दगी और मसर्रत <ref>आनन्द</ref> बनकर
न समा जाएगा ?
क़ुर्रतुलएन <ref>आँखों का तारा</ref> ! मेरी जान-ए अज़ीज़ओ मेरे फ़रज़न्दो <ref>पुत्रो</ref> !बर्क़-पा <ref>बिजली की गति से दौड़ने वाला</ref> वो मेरा रहवार <ref>घोड़ा</ref> कहाँ है लानातिश्न-ए खूँ <ref>ख़ून की प्यास</ref> मेरी तलवार कहाँ है लाना
मेरे नग़मे तो वहाँ गूँजेंगें
है मेरा क़ाफ़िला सालार जहाँ स्तालिन
वो मेरा मुल्के जवाँ
वो मेरा बाद-ए-अहमर <ref>लाल रंग की मदिरा</ref> का जवाँ साल सबू<ref>यौवन्से भरा मधु-घट</ref>मेरी नौख़ेज़ <ref>नई उभरी हुई</ref> मसर्रत का जहाँवो मेरा सर्वे रवाँ <ref>सर्वश्रेष्ठ सरदार</ref> मुल्के जवाँवलदुलजुर्म <ref>हरामी</ref> ख़ताकार दरिन्दों ने जहाँ
अपने नापाक इरादों से क़दम रखा है
एक नौख़ेज़ कली एक नौआशाज़ वश्र<ref>नवोदित मानव</ref>
वो मेरा मुल्के जवाँ
सच कहा है कि-- "ज़मीं के कीड़े
अपनी बेवक़्त अजल <ref>मृत्यु</ref> से डर कर
थरथराते हुए सहमे हुए घबराए हुए
निकल आए हैं बिलों से बाहर"
अपने फ़ौलाद से रौज़न <ref>छिद्रों</ref> के दहन <ref>मुँह</ref> बन्द करो
और फ़ासिस्ट शिग़ालों से कहो
नग़म-ए-अव्वल वो आख़िर है यही
है मेरा क़ाफ़िला सालार जहाँ स्तालिन
यही महशर <ref>मन बहलाने वाले महाप्रलय का दिन</ref> है दो आलम का तसादुम <ref>लड़ाई-झगड़ा</ref> है यही
एक पुराना आलम
एक नया
एक ढलती हुई छाँव
दूसरा एक उभरते हुए सीने का शबाब
तेज़ और तुन्द <ref>तीख़ी</ref> शराबपेट से रेंगने वाले ये नज़स <ref>कीड़े</ref> और नापाकसूसमार<ref>गोह</ref>
दौर-ए-वहशत के दरिन्दे
मूज़ी<ref>अत्याचारी</ref>दहन-ए आज़<ref>लोभ और लालच का मुँह लेकर</ref>-ओ-हलाकत <ref>मृत्यु</ref> का शिकंजा लेकर
मेरे शाही के ख़िलाफ़
रात दिन हैं के चले आते हैं