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'''प्रीति'''

::::[१]
प्रीति न और्ण साँझ के घन सखि!
::पल-भर चमक बिखर जाते जो
::मना कनक-गोधूलि-लगन सखि!

प्रीति नील, गंभीर गगन सखि!
::चूम रहा जो विनत धरणि को
::निज सुख में नित मूक-मगन सखि!

::::[२]
प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि!
::जो होता नित क्षीण, एक दिन
::विभा-सिक्त करके अग-जग सखि!

दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि!
::शीत, स्निग्ध,नव रश्मि छिड़कती
::बढ़ती ही जाती पग-पग सखि!

::::[३]
मन की बात न श्रुति से कह सखि!
::बोले प्रेम विकल होता है,
::अनबोले सारा दुख सह सखि!

कितना प्यार? जान मत यह सखि!
::सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे
::बसती कहीं प्रीति अहरह सखि!

::::[४]
तृणवत धधक-धधक मत जल सखि!
::ओदी आँच धुनी बिरहिन की,
::नहीं लपट कि चहल-पहल सखि!

अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि!
::प्रीति-स्वाद कुछ ज्ञात उसे, जो
सुलग रहा तिल-तिल, पल-पल सखि!





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