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'''गुनगुन करने लगे हैं दिन'''
 
चिट्ठी की पांती से खुलने लगे हैं दिन,
 
सर्दियाँ होने लगी हैं और कुछ कमसिन ।
 
 
 
दोहे जैसी सुबहें
 
रुबाई लिखी दुपहरी,
 
हवा खिली टहनी-सी
 
खिड़की के कंधे ठहरी,
 
 
 
चमक पुतलियों में फिर भरने लगे हैं दिन,
 
नीले कुहासे टंके हुए आंचल पर पिन ।
 
 
 
कत्थई गेंदे की
 
खुशबू से भींगी रातें,
 
हल्का मादल जैसे
 
लगी सपन को पांखें,
 
 
 
ऋतु को फिर गुनगुने करने लगे हैं दिन,
 
उजाले छौने जैसे रखते पाँव गिन-गिन ।
 
 
 
सूत से लपेट धूप को
 
सहेजकर जेबों में,
 
मछली बिछिया बजती
 
पोखर के पाजेबों में,
 
 
 
हाथ में हल्दी-सगुन करने लगे हैं दिन,
 
सांझ जलती आरती-सी हुई तेरे बिन ।
 
 
 
'''शांति सुमन'''
 
सृजन-सम्मान, रायपुर
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