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|रचनाकार=यश मालवीय
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[[Category:गीत]]{{KKCatNavgeet}}<poem>
नईम को देखे
 
बहुत दिन हो गए
 
वो जुलाहे सा कहीं कुछ बुन रहा होगा
 
लकड़ियों का बोलना भी सुन रहा होगा
 
ख़त पुराने,
 
मानकर पढ़ता नए
 
ज़रा सा कवि, ज़रा बढ़ई, ज़रा धोबी
 
उसे जाना और जाना गीत को भी
 
साध थी कोई, सधी,
 
साधू भए
 
बदल जाना मालवा का सालता होगा
 
दर्द का पंछी जतन से पालता होगा
 
घोंसलों में
 
रख रहा होगा बए
 
स्वर वही गन्धर्व वाला कांपता होगा
 
टेगरी को चकित नयनों नापता होगा
 
याद आते हैं
 
बहुत से वाक़िए
 ज़िन्दगी ओढ़ी बिछायी बिछाई और गाया 
जी अगर उचटा, इलाहाबाद आया
 
हो गए कहकहे,
 
जो थे मर्सिए।
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