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जबकिजिस साल मेरी नई नई नौकरी लगी थीउसी साल नौकरी बादआई थी मेरे घर पहली मनचाही संतान भीयानी दो-दो ख़ुशियाँ अमूमन इकट्ठे ही मेरे हाथ लगी थींतिस पर भीइस कन्या-जनम परकम दुखी-मन नहीं था मैंउसके इस दुनिया में क़दम रखने के दिनअपनी सरकारी नौकरी पर था घर से कोसों दूरइस ख़ुश आमद से बिलकुल बेगानामुझे इत्तिला करने की घरवालों नेज़रूरत भी महसूस न की थीऔर पूरे माह भर बादघर जा पाया था मैं घर पँहुचने से ठीक पहलेबाट में हीअपने को मेरा हमदर्द मानएक पुत्रधनी सज्जन ने मुझे बताया थाकि महाजन का आना हुआ है तेरे घरउसके स्वर मेंसहानुभूति और चेताने के द्वैध् संकेतसहज साफ़ अंकित थेइधर मैं बाप बनने का संवाद-मात्र पाकर पुलकित हुआ जा रहा था मैं तो बाल नामकरण परएक क़िताब भी ख़रीद लाया थाकि मेरे मन की मुराद पूरी हुई थी चाहता थाकि यह अपूर्व हर्षउस ख़बरची मित्र से भी हमराज करूँपर चाहकर भी बाँट नहीं पा रहा थाबेशक इसमें वह मेरा छद्म टटोलता घर पहुँचकर पत्नी से जाना कि कैसी ललक होती है प्रसूतिका कीअपने साझे प्यार की सौगात कोउसके जनक के संग इकट्ठे हीनिहारने सहेजने कीकि दूसरा जन्म ही होता है औरत काप्रसूति से उबरकरऔर इस बेहद असहज अमोल पलों मेंजातक के सहसर्जक कोख़ुद के पास ही पाने कीहर औरत की उत्कट चाह होती है कि मेरा इन नाजुक पलों मेंउसके पास न रहना....कितना कुछ बीता था उसपरजबकि ऐन दूसरे प्रसव के दिनोंएकबार फिर जीवनसंगिनी से दूर रहकरबदहवास लिख रहा हूँ मैंयह अनगढ़ संगदिल कविता
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