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{{KKRachna
|रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी
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<poem>

:साज़ टूटे हुए , मुतरिब ख़ामोश,
:गीत मक़तूल तो नगमे बिस्मिल,
:ठुमरियाँ बैठी हैं सर लटकाए हुए,
:पायलें बेहिस ओ हरकत, मज़लूम,
:थाप बिन तबला, वुजूद ए बेसुद,
:कुलकुल ए मीना कहीं खोई हुई,
:गुम फ़िज़ाओं में खनक साग़र की,
:नहीं कलियों के चटकने की सदा,
:बुलबुलें मुहर बलब, महव ए सुकूत,
:चलती है डरती दबे पाँव नसीम,
:किसी मस्जिद से नहीं उठती अजाँ की आवाज़,
:शोर ए नाकूस भी मंदिर में नहीं,
:सीटियाँ, होर्न, बिगुल, चुप साधे,
:मोटरें चलने की आवाज़ नहीं,
:हादसे, फ़ितने सरअफराज़ नहीं,
:और क्या है ये अगर राज़ नहीं-

:कोई बोले तो मैं उस से पूछूं
:क्या येही शहर है आवाज़ों का ?

:मुझे तनहाई कहाँ ले आई,
:एक सन्नाटा है तारी हर सू,
:मेरी आवाज़ डराती है मुझे,
:खिड़कियाँ बन्द पड़ी हैं कब से,
:अपना बेगाना यहाँ कोई नहीं
:क्यूँ न अब ख़ुद ही पुकारों ख़ुद को
:कोई आवाज़ तो कानों में पड़े
:ये मेरा शहर है आवाज़ों का