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मनके / राजश्री

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{{KKRachna
|रचनाकार=राजश्री
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<poem>
सुबह, दोपहर, शाम
खुली पलकें
ज्योतिहीन दृष्टि
मनके गिनती उगंलियाँ
जहाँ से चली
वहीं पर जा थमी।

बीज, अंकुर, फले वृक्ष,
झड़ते पत्ते
ठुमकती बयार
उड़ाते झोंके
कहां प्रारम्भ
कहां अन्त?

यात्रा, पडाव, मंजिल
बन्द पलकें
बन्द मुठ्ठी
अन्तर तलाशती दृष्टि
माला गिरी
अब खुली हथेली!
</poem>