भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
मगर सब्र का जाम अब भर चूका है
उम्मीदों का जादू असर कर चूका है
मैं तख़रीब कि की कुव्वतों से लडूंगा ज़माने को तासीर तामीर का दर्स दूँगा
उठाऊँगा सर पर फ़लक को फुगाँ से
ज़मीं पर गिरेंगे ये महल आसमाँ के
पुराने बुतान ए हरम तोड़ दूँगा
मैं तहज़ीब ए इन्सां का रुख़मोड़ रुख़ मोड़ दूँगा
ख़ुदा का भरम खोल दूँगा जहां पर
यक़ीं काँप जाएगा मेरे गुमां पर
ये ज़ररे जो सदियों से रौंदे गए हैं
हिक़ायत कि की नज़रों से देखे गए हैं
नए आफ़ताबों को फिर जन्म देंगे
लुटरों से फिर अपना हक़ छीन लेंगे