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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
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दौलत का चंद रोज़ में यूं जादू चल गया
कल तक जो आदमी था वो पत्थर में ढल गया
आने से उनके घर में मेरे रौशनी हुई
कल रात मेरे घर से अँधेरा निकल गया
मैं तो गमे-हयात से बेज़ार बैठा था
आई जो तेरी याद मेरा जी बहल गया
फिर यूँ हुआ के धर्म की दीवार आ गयी
उसने भी आँखें फेर लीं मैं भी बदल गया
ये आग सारी उम्र मुझे याद रहेगी
इस आग में तो प्यार, वफ़ा, दिल भी जल गया
अब आप आए हो मेरा अहवाल पूछने
जब थम गया तूफ़ान बुरा वक़्त टल गया
कुछ देर बाद चाँद निकल आएगा 'रक़ीब'
अब शाम होने वाली है सूरज तो ढल गया
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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
दौलत का चंद रोज़ में यूं जादू चल गया
कल तक जो आदमी था वो पत्थर में ढल गया
आने से उनके घर में मेरे रौशनी हुई
कल रात मेरे घर से अँधेरा निकल गया
मैं तो गमे-हयात से बेज़ार बैठा था
आई जो तेरी याद मेरा जी बहल गया
फिर यूँ हुआ के धर्म की दीवार आ गयी
उसने भी आँखें फेर लीं मैं भी बदल गया
ये आग सारी उम्र मुझे याद रहेगी
इस आग में तो प्यार, वफ़ा, दिल भी जल गया
अब आप आए हो मेरा अहवाल पूछने
जब थम गया तूफ़ान बुरा वक़्त टल गया
कुछ देर बाद चाँद निकल आएगा 'रक़ीब'
अब शाम होने वाली है सूरज तो ढल गया