भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अजेय
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
(रोहतांग पर शोधार्थियों के साथ पद -यात्रा करते हुए )
मुझ से क्या पूछते हो
इस दर्रे की बीहड़ हवाएं बताएंगी हवाएँ बताएँगी तुम्हें
इस देश का इतिहास ।
इस टीले के पीछे ऐसे कई और टीले हैं
किसी पर उग आए हैं जंगल
कोई ओढ़ रहा घास - फूस
कहीं पर खण्डहर और कुछ यों ही पथरीले
तुम चले जाना उन टीलों के पीछे तक ।
घंटियों और घुंघरूओं की झनक
अभी कौंध उठेगी वह गुप्त बस्ती
घूसर मुक्तिपथों पर भिक्खु लाल सुनहले
मणि-पù पद्म उच्चार रहे
ज़िन्दा हो जाएगा क्रमश:
पूरा का पूरा हिमालय तुम्हारा सोचा हुआ ।
लेकिन उस से पहले मेरे दोस्त
चट्टानों की ओट में खोज लेना
यहीं कहीं लेटा हुआ मिल सकता है
आलसी काले भालू -सा
इस बैसाख की सुबह
धीरे से करवट बदलता इस देश का इतिहास।इतिहास ।
उधर ऊंचाई ऊँचाई पर खड़ी है जो टापरी फरफराती प्रार्थना की पताकाएं पताकाएँ रंग -बिरंगी
गडरियों के साथ चिलम सांझा करते
किसी भी बूढ़े राहगीर से पूछ लेना तुम
वह क्या था
जिजीविषा या डर कोई अनकहा
जो उस के पुरखों को
पठारों और पहाड़ों के पार
मुझ से क्या पूछते हो
महसूस लो खुद ख़ुद ही छू कर
पत्थर की इन बुर्जियों में
चिन -चिन कर छोड़ गए हैं इस देश के सरदारकितनी वाहियात और खराब ख़राब यादें
उन तमाम हादिसों के ब्यौरे
जिन के ज़ख्म ले कर लोग यहां पहुंचे यहाँ पहुँचे
क्या कुछ खोते और खर्च कर डालते हुए
उस गडरिए की बांसुरी बाँसुरी की घुन धुन में छिपी हैं बेशुमार गाथाएंगाथाएँ
तुम सुनते रहना
मेरे विद्वान दोस्त ,
उन बेतरतीब यादों में से चुनते रहना
अपना मन मुआफिक मुआफ़िक साक्ष्य
लेकिन टहल लेना उस से पहले
इस नाले के पार वाली रीढ़ियों पर
सुनना कान लगा कर
चंचल ककशोटियों और मासूम चकोरों की
प्रणय -ध्वनियों सा गूँजता मिल जाएगा
इस देश का इतिहास.........
मैं तो बस यहां तक आया हूँ
बिलकुल तुम्हारी तरह ।
1991