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|संग्रह=ताख पर दियासलाई / स्वप्निल श्रीवास्तव
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<poem>
एक दिन मैं तुम्हें
 
भीगता हुआ देखना चाहता हूँ
 
प्रिये
 
बरिश हो और हवा भी हो
 
झकझोर
 
तुम जंगल का रास्ता भूल कर
 
भीग रही हो
 
एक निचाट युवा पेड़ की तरह
 
तुम अकेले भीगो
 
मैं भटके हुए मेघ की तरह
 
तुम्हें देखूँ
 
तुम्हें पता भी न चले कि
 
मैं तुम्हें देख रहा हूँ
 
फूल की तरह खिलते हुए
 
तुम्हारे अंग-अंग को देखूँ
 
और मुझे पृथ्वी की याद आए
</poem>
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