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समधी-समधन

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|रचनाकार=अज्ञात
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|भाषा=राजस्थानी
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<poem>
पुल पिछवाड़े पिपली रे, गहरा गहरा पान
 
ओ समधन घुंघटो काढ्या रे, थे कठ चाल्या
 
मार्ग विचाले कुपरी रे, जाँको ऊँची पाल
 
ओ समधन .......
 
घर के आगे ढोली बैठ्या, ढोली ढोल बजावे
 
समधन का पग थिरकन लाग्या, समधी ताल बजावे
 
समधी जी की पदमनी रे, आभा की सी बिजरी
 
झपको देकर निसरी रे, समधी गयो रे रीझ
 
ओ समधन .....
 
समधन जी सिनेमा चाली, समधी ने समझायो
 
चोके में ऑटो पड्यो है, फलका पोकर खाओ
 
ओ समधन ....
 
हाथी से हथनी लड़े रे, दरवाजे के बीच
 
समधी से समधन लड़े रे, देकर बैठी पीठ
 
ओ समधन ....
 
रून-झुन बाजे घाघरा रे, ठुमकत चाले चाल
 
मन समधी को गयो हाथ से, पढ़ गयी मुहँ से लार
 
ओ समधन ...
</poem>
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