भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रीढ़ / अनिल विभाकर

14 bytes added, 07:58, 22 मई 2011
दौलत के बल पर गुर्दा मिला, जैसा चाहा वैसा
खून ख़ून मिला, बिल्कुल असली
शरीर के ढेर सारे अंग मिले
किराए पर मिली कोख भी
जहां जहाँ भी की रीढ़ की बात
ढेर सारी रीढ़ दिखाई सौदागरों ने
पसंद नहीं आई एक भी
सब लुंज-पुंज
मुंहमांगी कीमत मुँहमाँगी क़ीमत देने को तैयार थाधरा रह गया पूरा खजानाखज़ानाएक नहीं ढेर सारी मिलीं तनी हुई तर्जनियांतर्जनियाँ
कहीं नहीं मिली तनी हुई रीढ़
दुकानदार ने कहा - यहां यहाँ क्या कहीं नहीं मिलेगी
विष्णु के सात फनों वाले
शेषनाग की तरह दुर्लभ है यह।यह ।
बिना तनी हुई रीढ़ के चल रहा है यह देश
यही है देशवासियों के दुख की असली वजहवज़ह</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,141
edits