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15:45, 2 जुलाई 2011
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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : ना तीर न तलवार से मरती है सचाई सपने में ('''रचनाकार:''' [[उदयप्रताप सिंहडॉ० रणजीत]])</div>
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</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
ना तीर न तलवार से मरती है सचाई भई गुड्डन, यह कौन सा तरीका हुआजितना दबाओ उतना उभरती जब तुम्हें मेरे पास रहना नहीं है सचाई तो मेरा पीछा छोड़ोक्यों नाहक मुझे परेशान करती रहती हो
ऊँची उड़ान भर भी ले कुछ देर को फ़रेब आना हो तो आओ पूरी तरह सेआख़िर नहीं तो वहीं रहो मजे में उसके पंख कतरती यह क्या बात हुईकि दिन-दहाड़े सबके सामने तो कहोकि मम्मी के पास ही रहना है सचाई मुझेऔर रातों में चुपचाप चली आओ यहाँऔर फिर यह तो भई हद हैजानबूझ कर दुःखी करने की बात हैकि भटकता रहूँ मैं सारी रात तुम्हारे साथस्मृतियां और संभावनाओं के बियाबानों मेंऔर सवेरा होते-होते अदृश्य हो जाओ तुमबिना कुछ कहे सुने
बनता है लोह जिस पापा को इस तरह फ़ौलाद उस तरह शोलों के बीच में से गुज़रती है सचाई सर पर उसे बैठाते हैं जन्नत के फ़रिश्ते ऊपर से जिसके दिल में उतरती है सचाई जो धूल में मिल जायनहीं सताते, वज़ाहिर, तो इक रोज़ बेटेबाग़ेअब बार-बहार बन के सँवरती है सचाई रावण बार तुम्हें ढूँढ़ने की बुद्धि, बल से न जो काम हो सके वो राम की मुस्कान से करती उनकी हिम्मत नहीं है सचाई ।
</pre></center></div>
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