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छतरी / एम० के० मधु

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|रचनाकार=एम० के० मधु
|संग्रह=बुतों के शहर में/ एम० के० मधु
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<poem>
छतरी से ढंका ढँका तुम्हारा चेहरा
नहीं दिखता है,
सुनहरी धूप पर फिसलती
तुम्हारी परछाईं देखता हूं हूँ
और हृदय में फैले बलुआही रेगिस्तान पर
लगता है
ओस की कुछ फुहार बरस गई है।है ।
रास्तों के फ़ासले हैं,
फिसलन पर तेज़ी से सरकने वाला
तुम्हारा अक्स
मेरे पदचापों को अपने से बांधे बाँधे है
यह बरबस बढ़ता है
बढ़ता रहता है
आंखों आँखों में तुम्हारी परछाईं की लुकाछिपी को
क़ैद करते हुए
अपने निशान छोड़ते हुए
सड़क के कंक्रीट
तमाशाई के जश्न में शामिल हो चुके थे।थे ।
</poem>
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