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Kavita Kosh से
तरफ़दारी नहीं करते कभी हम उन मकानों की
छतें जिनकी हिमायत चाहती हों आसमानों की
ये कालोनी है या बेरोज़गारों की कोई मंडी
जिधर देखो क़तारें ही क़तारें हैं दुकानों की
मुरादाबाद में कारीगरी ढोता हुआ बचपन
लिये फिरता है साँसों में सियाही कारख़ानों की
न जाने कितनी तहज़ीबें बनीं और मिट गयीं लेकिन
मिसालें आज भी क़ायम हैं उन गुज़रे ज़मानों की
तू जिस इंसाफ़ की देवी के आगे गिड़गिड़ाता है
वो तुझको न्याय क्या देगी, न आँखों की, न कानों की
उगा है फिर नया सूरज, दिशाएँ हो गईं रोशन
परिन्दो! तुम भी अब तैयारियाँ कर लो उड़ानों की
तुम उसको बेवफ़ा ऐ ‘नाज़’ साबित कर न पाओगे
बड़ी लंबी-सी इक फ़हरिस्त है उस पर बहानों की