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Kavita Kosh से
सदस्य आगत शुक्ल 8020 द्वारा प्रेषित
कविता कोश के लिए डाटा
'''नाम माधव शुक्ल‘मनोज’'''उपनाम मनोज
राष्ट्रीयता भारतीय
भाषा हिन्दी
बोली बुन्देली
काल आधुनिक काल
विधा हिन्दी और बुन्देली कविता, डायरी लेखन
विषय ग्राम्य जीवन,
साहित्यक जीवन की मौलिक अभिव्यक्ति
आन्दोलन राष्ट्रीय एकता सद्भावना यात्रा
प्रमुख कृतियां एक नदी कण्ठी-सी
नीला बिरछा,धुनकी
टूटे हुए लोगों के नगर में
'''बुन्देली कविता'''
1 मामुलिया, -नीला बिरछा, माधव शुक्ल‘मनोज‘
8 एक क्षण रात का हुआ दिया एक दिन सूरज होकर जिया,- माधव शुक्ल‘मनोज‘
9 छोटी सी नाव चले, -माधव शुक्ल‘मनोज‘
13 इबारत आदमी की, -टूटे हुए लोगों के नगर में, माधव शुक्ल‘मनोज‘
14 गंध के पहाड़
कब सें देखू बाट पिया की लौट अबहु नहिं आये रे
झर गई चंपा, झर गई बेला, झर गये फूल कनेरा रे।
राह देखती, बाट जोहती
देखू कौन डगरिया रे।
फरर-फरर पुरवैया बैरिन
खींचे रोज चुनरिया रे।
पोरा गिनगिन तडपूं तुम बिन
सूनी सेज सिजरिया रे।
नहीं सुहावे पनघट कुईया
भरी न जाय गगरिया रे।
कटे न काटे कटतीं रतिया
दूभर हो गई बिंदिया रे।
3 <poem>हीरा बीनें कीरा</poem>-नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज
हीरा बीनें कीरा मुकुन्दी बीनें बेर
झुरझुरी को काटों लग गओ-
स्ब बगर गये बेर
कैसो आ गओ, अरे जमानो
हीरा हो गये कीरा।
मणि माला में आज मुकुन्दी
हो गये मिरचा-जीरा।
स्वारथ की धूनी पे जा कें
हो गए सब बमभोला
महनत को सब आज पसीना
हो रओ कोकाकोला।
खटपट सब बंद हुई, सूनसन गलियां।
गुमसुम है कांटों में, आशा की कलियां
पुरबा की लोरियां, सुगन्ध भरी थपकी।
अंखियन में धीरे से निंदिया ले मंहकी।
सुधबुघ सब भूल गई रतियों में देहिरा-
धरती की सेजों में सपनों में अटकी बात।
बेला फूले आधी रात।
धीरे से डूब गई चंदा की चांदनी।
फीकी सी बिखरी है तारों की रोशनी
गोरी सी बेला की दूध भरी पांखुरी।
जीवन में जीने की फूंक रही बांसुरी।
सिरहाने दियला रख, जाग रही घड़कन-
करवट ले हाथ की बजाती है चुटकी रात।
बेला फूले आधी रात।
दूर अभी पूरब में भोर का सितारा।
नदिया का घाट और चुप है किनारा।
नाले किनारे है टीटई का पहरा।
अम्बर का धरती पर अंधियारा गहरा।
चिड़ियों का मीठा सा नीड़ों में बंद गीत-
स्वर साधे बैठा है, मन में गीतों का प्रात।
बेला फूले आधी रात...
5 <poem>मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे</poem>-नीला बिरछा,माधव शुक्ल मनोज
मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
ढ़पला-रमतूला संग बांसुरियां कूक उठी
पीलेे से मधुबन में शाखायें पीक उठी।
मीठी सुगन्ध भरे महुआ के झौर झरे।
अमवा की अमियों में बैशाखी गीत भरे।
छोटे से गांव में भुनसारे, दिन डूबे-
खेतों खलियानों में गूेहूं के साज सजे
मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे ।
ऊमर की बात नयी,शहतूती बोल नये।
बेरी के मुरचन में मीठा रस घोल गये।
भिलमा की आंखों में टेसू का रंग भरा।
काठ के कठौता में सतुआ का स्वाद घुरा
घी चुपड़ी गांकर में दुपहर की भूख बुझी-
माटी के ढ़िमलों पर जीवन के गीत गुंजे।
मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
इमली की फलियों खनकीं पक कुक करके।
फल निकले पीपल के पतझर में उठ करके।
ऐसे ही गांवन के जीवन में रस छलका।
फसलों की रानी, जब करती है मन हलका।
टिमक उठी टिमकी रे, मैया के मंदिर में-
थोड़ी सी मस्ती में सबके दुख-दर्द लजे।
मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे।
हिन्दी कविता
6 <poem>कब से यूं भटक रहे भूले से शा शाहर में</poem>-जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल मनोज
कब से यूं भटक रहे
भूले से शहर में
जहां नहीं मिलता है, एक टुकड़ा धूप का
खिला हुआ फूल और थोड़ी सी चांदनी-
बांह भरे इन्द्र धनुष।
मिलतीं हैं-साजिशें,अपनी ही डगर में।
कब से यूं भटक रहे, भूले से शहर में।
कोलाहल उठता है,दूकानें चलती हैं
हिसाबों की गलियों में,जोड़-तोड़ बाकी है-
लगी हुई झांकी है।
जीवन की रसधारा@घुलती है जहर में।
कब से यूं भटक रहे,भूले से शहर में।
कौन कहां जाता,समझ नहीं आता है
चैराहे पर जीवन,धुंए के बादल सा-
एक पवन-झोंके सा।
दिखता है सब कुछ पर, धुंधली सी नजर मेंं
कब से यूं भटक रहे,भूले से शहर में।
कहा नही जाता है,सहा नहीं जाता है
बोलूं तो क्या बोलूं,खिड़की से से देखता हूं
रेत का समुन्दर है।
पानी पर नाव कभी,चल देगी लहर में।
कब से यूं भटक रहे,कागज के ‘ाहर में।
7 <poem>हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है</poem>,- जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल मनोज
हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है
तुझे लगा है गहरा काटा
फिर भी मुस्काती-है
दुख-दर्दां के बेटों को तू
लोरी गाती है।
रोना कोई देख न ले
चुपके से रोती है
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
बुझा दिया अपने नसीब का
तू सुलकागी है
अंधकार के घर में बैठी ज्याति जलाती है
धीरज बांध लिया आंचल जब
बेचैनी होती है।
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
नदी हो गई जब रेतीली
तू हो मटमैली।
आकाशी घनघोर घटायें
लेकर तू-फैली।
किसी घाट पर आंसू से तू
सपनों को धोती है।
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
चट्टानी है तेरा सीना
सब सह जाती है
मन मसोस कर अरी जिन्दगी
तू रह जाती है।
सिर पर गुजर बसर का बोझाा
निशदिन तू ढोती है।
हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
तू सरज संग चली और फिर
दिन भर चलती है।
तेरी ही आंखों में हर दिन
संध्या ढ़लती है।
सूरज पहिन लिया माथे पर
चंदा सा मोती है।
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
8 <poem>एक क्षण रात का हुआ दिया एक दिन सूरज होकर जिया</poem>-माधव शुक्ल मनोज
9 गांव की भोर-नीला बिरछा, माधव शुक्ल मनोज
चक्की के पाटों का राग उठा, घरर-धरर।
माटी के घर में जगा धुंधले सुबह का पहर।
चक्की की सुरधुन सुन रोंथ रहीं गैया।
चक्की चलाय गोरी गायें झूम रैया।
छिप गई बादर की नन्हीं तरैया।
झूम उठी पुरवा ले तरू की बलैया।
चहक उठीं नाच उठी डाल पर चिरैया।
सूरज को चूम उठीं किरणों की बैयां।
बेल उठे घर-घर के नन्हें कन्हैया।
भोर भई, भोर भई, देखो री मैया।
घूंघट संभाल उठी घर की दुलहनिया।
बाज उठी पांवों की छम-छम पैजनियां।
पनघट की गलियों में झनक उठी चूड़िया।
गागरिया चूम उठी लहरों की सीढ़िया।
गागरिया शीश घरे पनहारिन ठुमक चली।
गांव की भोर काम काजों में महक चली।
नाजुक सी छोरी बुहार चली आंगन।
गडु़आ में दूध दुहे घर की सुहागिन।
गोरस की मटकी में गाये मथानी।
गांव के जीवन की भोली कहानी।
महनत की दुनिया के सैयां रसीले
अपनी जो घुन में हैं बड़े नशीले।
चूम रहे बार-बार बैलों के मुखड़े।
भूल गये कल के जो अनहोने दुखड़े।
10 <poem>वह छोटा सा गांव</poem> -नीला बिरछाए भोर के साथी,माधव शुक्ल मनोज
वह छोटा सा गांव है
नदिया के उस पार बसा रे
वह छोटा-सा गांव है,
जहां-तहां टूटे छप्पर है
माटी की दीवार है।
जांता चक्की ओखल मूसल
सीके टंगे मियार है,
चिथड़ों से वह लदी अरगनी-
बेड़ा भीतर द्वार है।
हड़िया कुठिया और कठौता
रस्सी ओंगन चाक हैं
कंडा लकड़ी भरा मचेरा-
पौरों में अंधियार है।
खुटियों पर लटके हल बक्खर
फूटे बर्तन, खाट हैं,
हंसिया खुरपी गाड़ी-बैलों-
से पूरित घरबार है।
छुई से पुत द्वार के खम्बे
झुकी-झुकी दालान है
घर की एक पुतरिया स ीवह
घूंघट डाले नार है।
पिछवाडे़ बाड़ी गौशाला
अगल-बगल गलयार हैं
आंगन में पीपल का बिरछा-
परिजन पहरेदार हैं।
नंग-धुरग बच्चों के वे
तिल्ली वाले पेट हैं
सूखी सी रोटी से जिनको-
मिलता रहा दुलार है।
गांव के भईया भोले-भाले
खेतों के सिरताज हैं,
जिनका घिरा हुआ जंगल में
छोटा सा संसार है।
11 <poem>एक नदी कंण्ठी सी</poem>-एक नदी कंण्ठी सी,माधव शुक्ल मनोज
एक नदी कण्ठी सी
मटमैली मेड़ पर
पगडन्डी धूल पर
उस सूरज के घर
एक ताल सोने का
एक नदी कन्ठी सी।
एक गांव बहुत प्यारा है
सूरज के घर का
सबसे छोटा बेटा है
गेहूं की बालों का
मेहनती छोरा है
जो नदिया को हेर-घेर
कन्ठी सा पहिने है।
जिसकी गोरी ने
एक ताल सोने का
जो सुबह-सुबह छलका है
अपनी गागर भर
सिर पर बिंदिया सा पहिना है।
12 <poem>चिल्लाता है जनमन</poem>..-टूटे हुए लोगांे के नगर में!एक नदी कंण्ठी सी,माधव शुक्ल मनोज
चिल्लाता है जनमन
हरि गुमसुम है, आसमान में,
चिल्लाता है जनमन
भेद आदमी ने बोया है
बटवारा है मन का
स्वार्थ सिद्धियां उगती आती
अनाचार हर दिन का
हुई भावना गन्दी,नाली गंध उड़ी जहरीली-
फंसा हुआ है कीड़ों जैसा किल्लाता है जनमन
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।
महलों में इन्सान बड़ा हो
खाता लड्डू-पूड़ी
झोपड़ियों में पड़ी गरीबी
तप चढ़ी है-जूड़ी
मरे देश या मानवता भी अपने सुख के खातिर-
तिरस्कार से नीचे लेटा कुन्नाता है जनमन।
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।
सेवा का है मूल्य धृणा से
कैसी अद्भुत लीला।
असहायों के सिर के ऊपर
गढ़ा हुआ है कीला।
सभा-भाषणों के द्धारा आदर्श बघारा जाता-
‘ााला की बजती घंटी सा झन्नाता है-जनमन।
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।
13 <poem>इबारत आदमी की</poem>-टूटे हुए लोगों के नगर में,माधव शुक्ल मनोज
इबारत आदमी की
जीने का सवाल हल करते-करते
जिन्दगी का उत्तर गलत हो जाता है
गुजर-बसर का सूत्र
वर्तमान का गुणा-भाग
भविष्य का जोड़-बाकी
एक बिन्दु पर रह जाता है
निराशायें आदमी को खरीद लेती हैं
आदमी बिना भाव के बिक जाता है।
सवालों के ढेर के ढेर
नये-नये माप-तौल
मंहगाई की नयी परिभाषा-
गेहूं और पेट्रोल।
किलो और मीटर में
पानी और आग का सवाल
सवाल इबारत में बंध कर
किसी वृक्ष के ऊपर बैठ जाता है।
हाय रे, सवाल के साथ-साथ
अपने हाथों के पोरा गिनता हुआ आदमी
वृक्ष के नीचे
पक कर टपक जाता है।
उसका पूरा समय
एक कोने में
लाठी की तरह टिक जाता है।
14 <poem>गंध के पहाड़</poem>
दिन भर लहराते रहे खुशबुओं के वन
उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।
स्वाथों ने पहिनी है
सूरज की रोशनी
सम्यता ने डाली दिखावे की ओढ़नी।
पथहारे खोज रहे जीने की छांह-
बबूल बने बैठे हैं-आमों के झाड़।
उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।
असत्य खुश है किन्तु
आज सत्य अनमना
पतित को कहा गया
ये हैं’-महामना
अपने ही घर में अभिनय का जोर है
आंगन में शोर, सभी बन्द हैं किवा़ड़।।
उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।।
कह रहा मनुष्य ही
मनुष्य को खराब।
छिपी हुई है भावना
पिये हुए शराब।
आदर्श को लपेट कर, महक रही है रात-
मनुष्य अब मनुष्य को ही दे रहा पछाड़।।
उड़ने लगे रात में गन्ध के पहाड़।।
दिन भर लहराते रहे खुशबुओं के वन-
उड़ने लगे रात में गन्ध के पहाड़।