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मैं हार गया रचते-रचते शत-शत खगोल
दिखता न अंत, माया- छाया-सी रही डोल
लय-सर्जन स्रजन लिए युग कर में
. . .
यह कमल नहीं अंगार, अपरिवर्तित जिस पर
मैं चिर अनादि- से एकाशन शासन-तत्पर
मुझसे तो अच्छे देव, मनुज , हँसकर रोकर
सुख-दुख में लेते जो नूतन आकृतियाँ धर
चढ़ जन्म-मरण-दोलों पर
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