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{{KKRachna
|रचनाकार=घनानंद
}}
::::'''कवित्त'''<br><br>
प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ<br>
कैसे रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ।<br>
तुम तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार<br>
सुनियै पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ।<br>
चातिक है रावरो अनोखो मोह आवरो<br>
सुजान रूप-बावरो, बदन दरसायहौ।<br>
बिरह नसाय, दया हिय मैं बसाय, आय <br>
हाय ! कब आनँद को घन बरसायहौ।। 12 ।।<br>
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