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|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
|संग्रह=बलि-निर्वास / गुलाब खंडेलवाल
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[[category:गीत]]
<poem>
विन्ध्याचली—
मना लूँ मन को तो, सजनी!
जीवनधन के बिना कटे क्योंकर पावस की रजनी!
तप करने निकले मनमोहन, वन के भाग्य जगे री
सूनी सेज पड़ी, ऐसे नंदन में आग लगे री
सजनी तुझको रामदुहाई, उनसे कह दे जाकर
धूनी बनी विरहिनी जल-जल, से लें घर ही आकर
योगीश्वर कहलाते शंकर उमा-अधर-रस-भोगी
जो वियोग की पीर समझते वे हैं सच्चे योगी
<poem>