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{{KKRachna
|रचनाकार=साहिर लुधियानवी
|संग्रह=तल्खियाँ / साहिर लुधियानवी
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फ़िज़ा में घुल से गए हैं उफ़क के नर्म खुतूत
ज़मीं हसीन है, ख्वाबों की सरज़मीं की तरह
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं
कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह
वे पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह
इन्हीं के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
खामोश होठों से कुछ कहने-सुनने आए हैं
न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
ये सोते-जागते लमहे चुराके लाए हैं
यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी
हुजूरे-ग़ैब में नन्हीं सी इल्तिजा की थी
कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें
दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें
तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बचकर
खुद अपने कदमों की आहट से, झेंपती, डरती,
खुद अपने साये की जुंबिश से खौफ खाए हुए
रवाँ है छोटी-सी कश्ती हवाओं के रुख पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है
तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मेरी खुली हुई बाहों में झूल जाता है
मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।
मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,
सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम
वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,
कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी
ख़लवत में भी जो ममनूअ थी वह जलवत में जसारत होने लगी
तुम आ रही हो सरे-आम बाल बिखराये हुये
हवस-परस्त निगाहों की चीरा-दस्ती से
बदन की झेंपती उरियानियाँ छिपाए हुए
मैं शहर जाके हर इक दर में झाँक आया हूँ
सितमगरों के सियासी क़मारखाने में
अलम-नसीब फ़िरासत का मोल मिल न सका
तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बर्पा है
कि जिसका ज़िक्र तुम्हें ज़िन्दगी से प्यारा था
वह भाई 'नर्ग़ा-ए-दुश्मन' में काम आया है
हर एक गाम पे बदनामियों का जमघट है
न दोस्ती, न तकल्लुफ, न दिलबरी, न ख़ुलूस
किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं
वह रहगुज़र जो मेरे दिल की तरह सूनी है
तुम्हें खरीद रहे हैं ज़मीर के कातिल
उफ़क पे खूने-तमन्नाए-दिल की लाली है
सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
जीने को जिये जाते हैं मगर, साँसों में चितायें जलती हैं,
खामोश वफ़ायें जलती हैं,
संगीन हक़ायक़-ज़ारों में, ख्वाबों की रिदाएँ जलती हैं।
मैं सोच रहा हूँ इनका भी अपनी ही तरह अंजाम न हो,
इनका भी जुनू बदनाम न हो,
इनके भी मुकद्दर में लिखी इक खून में लिथड़ी शाम न हो॥हो
सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे॥मुझे
हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका,