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{{KKRachna
|रचनाकार=नंदकिशोर आचार्य
|संग्रह=
}}<poem>जो कुछ कहना हो उसे
--खुद से भी चाहे—
व्यंजना में कहती है वह
कभी लक्षणा में
अभिधा में नहीं लेकिन
कभी

कोई अदालत है प्रेम जैसे
कबूल अभिधा में जो
कर लिया
--सजा से बचेगी कैसे!
</poem>
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