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<poem>'''...आतंक की ये प्रचण्ड ज्वाला...''' शून्यता किस को कहते हैंवर्तमान से बड़ा इसका कोई उदाहरण नहीं अच्छा हुआ देश पहले ही आज़ाद हो गयाकुछ ऐसी शख़्सियतोंके द्वारा जिन्होंनेमहसूस किया मेरी तेरी नहीं बल्कि पूरे देश की ग़ुलामी का दर्द,महसूस किया विदेशी हाथों अबलाओं की लुटती इज़्ज़त का दर्दमहसूस कियाअपनी माटी को विदेशी जूतों सेरौंदे जाने का दर्दमहसूस कियाअन्याय के हाथोंन्याय का गला घोंटे जाने का दर्दनमन है उन शहीदों कोजो मिट गयेइन दर्दों को मिटाने मेंमगर अब हर ज़ुल्मसिर्फ अख़बार की सुर्ख़ियों के लिए हैदिनोंदिन उसकी बिक्री के लिए हैअब कानों कोआतंकी निर्दयी हाथों सेनिरपराध,अबला, मासूमोंपर होनेवहशियाना हमलों कीचीख़ें सुनाई नहीं देतीऔर अगर देती भी हैंतो सुन कर भी अनसुनी कर दी जाती हैं क्योंकिये दर्द तो तब होताजब सबके लिए सबके दिल में दर्द होताहर आँख का अश्कअपनी आँख का अश्क होता हैआज हुआ हैकल फिर होगाहर रोज होगाऔरतब तक होगाआतंक का ये वहशियाना खेलजब तक हम खुद कोपूरे देश, पूरी क़ौम के लिएसमर्पित करने को तैयार न होंगेस्वार्थ की ज़ंजीरों सेखुद को आज़ाद करऔरों के लिए ज़ीनेऔर मरने को तैयार न होंगेतब तकआतंक की ये प्रचण्ड ज्वालाजलती रहेगी और जलाती रहेगी सुशील सरना</poem>{{Welcome|Sushil sarna|sushil sarna}}