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Kavita Kosh से
तब-तब होती सभ्यता, दूनी लहू-लुहान।।
बौने कद के लोग हैं, पर्वत - से अभिमान।
जुगनू अब कहने लगे, खुद को भी दिनमान।।
शकरकंद के खेत के, बकरे पहरेदार।।
बदला -बदला लग रहा, मंचों का व्यवहार।
जब से कवि करने लगे, कविता का व्यापार।।