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{{KKRachna
|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
|संग्रह=
}}
{{KKCatNavgeet}}
<Poem>
कभी अयुध्या मन में बसती
कभी अयुध्या के बाहर मन
चिंताओं के मकड़जाल से
मुक्त डोलता कोमल जीवन
बचपन के तो चंद इशारे
माँ समझे या समझे बापू
जिनकी ओली ही लगती है
सबसे ऊंचा सुन्दर टापू
क्या सोना तब हीरा- मोती
क्या माने रखता सिंहासन!
कभी चाँद - तारों की बातें
कभी धूप के मोती चुनना
कभी पकड़ना अपनी छाया
अपने मन की आहट सुनना
छोटे-छोटे खेलों में भी
हो जाती थी मीठे अनबन!
चढी जवानी देखे सपने
बोझिल झुके हुए हैं कंधे
धुक-धुक-धुक-धुक जी करता है
कितने फंदे- कितने धंधे!
मन ही मन बस यह ही चाहूँ
लौटे फिर मुझमें बचपन!
</poem>
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|संग्रह=
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<Poem>
कभी अयुध्या मन में बसती
कभी अयुध्या के बाहर मन
चिंताओं के मकड़जाल से
मुक्त डोलता कोमल जीवन
बचपन के तो चंद इशारे
माँ समझे या समझे बापू
जिनकी ओली ही लगती है
सबसे ऊंचा सुन्दर टापू
क्या सोना तब हीरा- मोती
क्या माने रखता सिंहासन!
कभी चाँद - तारों की बातें
कभी धूप के मोती चुनना
कभी पकड़ना अपनी छाया
अपने मन की आहट सुनना
छोटे-छोटे खेलों में भी
हो जाती थी मीठे अनबन!
चढी जवानी देखे सपने
बोझिल झुके हुए हैं कंधे
धुक-धुक-धुक-धुक जी करता है
कितने फंदे- कितने धंधे!
मन ही मन बस यह ही चाहूँ
लौटे फिर मुझमें बचपन!
</poem>