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{{KKRachna
|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
|संग्रह=
}}
<poem>
मारे-मारे
बनकर बंजारे
फिरते-रहते
हम गली-गली !

जलती भट्ठी
तपता लोहा
नए रंग ने
है मन मोहा
चाहें जैसा
मोड़ें वैसा
धरे निहाई
हम अली-बली!

नए-नए-
औज़ार बनाएँ
नाविक के
पतवार बनाएँ
रही कठौती
अपनी फूटी
खा भी लेते
हम भुनी-जली!

राहगीर मिल
ताने कसते
हम हैं फिर भी
रहते हंसते
अभी तुम्हारा
समय सहारा
जो सुन लेते
हम बुरी-भली!
</poem>
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