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|रचनाकार=राजीव भरोल 'राज़'
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[[Category:ग़ज़ल]]
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बड़ी शिद्दत से पहले तो वो अपने घर बुलाता है,
मगर एहसान फिर बातों ही बातों में जताता है.

भले ही साथ रहते हैं मगर बातें नहीं होतीं,
मैं घर से सुबह जब निकलूँ वो वापिस घर पे आता है.

ठगा जाता हूँ जब भी तो यही मैं सोच लेता हूँ,
जो दिल का साफ होता है वही धोखा भी खाता है.

भला कैसे बताऊँ अपने दिल का हाल मैं उसको,
मेरी बातों को वो अक्सर हंसी में ही उड़ाता है.

झगड़ता है जो वो मुझसे तो दुश्मन मत समझ लेना,
बहुत है पास वो दिल के तभी तो दिल दुखाता है.

कहीं दीवानगी उसकी तुम्हारे घर पे ना बरसे,
जो कल तक नोंचता था बाल अब पत्थर दिखाता है.
</poem>