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{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव भरोल 'राज़'
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
बुलंदियों से हमें यूँ तो डर नहीं लगता
पर आसमां पे बना घर भी घर नहीं लगता.
मैं उनके सामने सच बात कह तो देता हूँ,
मेरा कहा उन्हें अच्छा मगर नहीं लगता.
फलों से खूब लदा पेड़ है यकीनन वो,
मगर जो छांव दे, ऐसा शजर नहीं लगता
वो राहे इश्क में चल तो पड़ा है, लेकिन वो,
सफर की मुश्किलों से बाखबर नहीं लगता,
हमें तो हर घड़ी पगड़ी की फ़िक्र रहती है,
वगैर इस के ये सर भी तो सर नहीं लगता.
खुदा का शुक्र है अब तक तो मेरे बच्चों पर,
नई हवा का ज़रा भी असर नहीं लगता.
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव भरोल 'राज़'
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
बुलंदियों से हमें यूँ तो डर नहीं लगता
पर आसमां पे बना घर भी घर नहीं लगता.
मैं उनके सामने सच बात कह तो देता हूँ,
मेरा कहा उन्हें अच्छा मगर नहीं लगता.
फलों से खूब लदा पेड़ है यकीनन वो,
मगर जो छांव दे, ऐसा शजर नहीं लगता
वो राहे इश्क में चल तो पड़ा है, लेकिन वो,
सफर की मुश्किलों से बाखबर नहीं लगता,
हमें तो हर घड़ी पगड़ी की फ़िक्र रहती है,
वगैर इस के ये सर भी तो सर नहीं लगता.
खुदा का शुक्र है अब तक तो मेरे बच्चों पर,
नई हवा का ज़रा भी असर नहीं लगता.
</poem>