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<poem>तुमसे मैं कुछ पल जुदा भी हो गया तो क्या हुआ
शाम को घर लौट आया सुब्ह का भूला हुआ

बेतहाशा तंज़ करता है दिये पर आज तक
एक टुकड़ा तीरगी का पाँव से लिपटा हुआ

मेरा हक़ नक़्शे पे है, दे मुझको नुक़्ताभर जगह
शहर हूँ मैं और वो भी दूर तक फैला हुआ

मैं नदी हूँ, तू समंदर, फ़र्क़ बस इतना ही है
हर घड़ी मैं हूँ सफ़र में और तू ठहरा हुआ

जिंदगी तेरी हक़ीक़त से मैं नावाक़िफ़ नहीं
जाने कितनी बार का ये ख़्वाब है देखा हुआ

ज़िंदगी ऐसा जज़ीरा है कि जिसके हर तरफ़
तिश्नगी का है समंदर दूर तक फैला हुआ

अपनी बरबादी पे पहरों रहता है गुमसुम वो ‘नाज़’
याद आता है खँडर को वक़्त जब बीता हुआ</poem>